सोमवार, 4 मई 2015

ठहरो मैं दीप जला आऊँ



ठहरो, मैं दीप जला आऊँ,
आने की आहट होती है,
अँधकार बहुत ही गहरा है,
रात्रि का अंध-प्रहर है यह,
पथ विजन, सहारा कुछ भी नहीं,
ठहरो मैं दीप जला आऊँ।

मेरी स्मृति के साथ जुड़ी,
उनको भी स्मृति हो आई हो,
बंधन है हृदय का, मोह नहीं,
कँकरीला पथ,डगमग हैं पग,
है आस मगर दो नयनों को,
मैं मग के कंटक  चुन आऊँ...
ठहरो मैं दीप जला आऊँ।

यह जन्म-जन्म का बंधन है,
भूलूँ मै कैसे इसे अभी,..
नभ में मेघों का समर छिड़ा,
बिजली की कौंध डरा जाती,
मन विकल करे गर्जन तर्जन,
इस निविड़ रात्रि में कैसे तब
उनको मैं राह दिखा पाऊँ,
ठहरो मैं दीप जला आऊँ...

कैसे पाऊँ प्रतिपल जिसकी
राहों में पलकें भींग रहीं,
जिसकी करूणा जिसकी ममता,
अवलंबन में मैं बँधी रही,
उनके आने की आहट है,
ठहरो मैं दीप जला आऊँ...

उनके बिन मंदिर सूना है,
खुल गये सभी पट रात्रि- प्रात के,
अब प्रात निशा कासन्धि प्रहर,
उनके चरणों की आहट है
अगुरू-गन्ध –झकोरो से
अन्तः-प्रकोष्ठ को भर आऊँ,
ठहरो मैं दीप जला आऊँ...।

है पथ दुर्गम ,निष्ठुर है गगन,
बस स्नेह डोर के छोर पकड़,
इस विजन रात्रि में सहम-सहम,,
धीमे पग ही मैं आने दूँ....
ठहरो, मैं दीप जला आऊँ....।।

आशा सहाय़----5-10-2014---।
चित्र - गूगल से साभार--

गुरुवार, 4 सितंबर 2014

शिक्षक-दिवस



यह ठीक है कि शिक्षक दिवस सर्वपल्ली डॉ राधाकृष्णन् के जन्मदिवस पर मनाया जाता है।
यह उनकी सबसे बड़ी उदारता थी कि उन्होंने इसकी  इजाजत दी। परन्तु उन्होने यह कदापि नहीं सोंचा होगा लोग उनके चित्रों पर माल्यार्पण करे, दिवस के नाम पर कुछ टिकटें बेचें, कुछ पैसे इकट्ठे करें और शिक्षकों को समाज क सामने दरिद्र स्वरूप मे प्रस्तुत कर उनके स्वाभिमान को ठेस पहुँचाते रहें। दरिद्र अथवा अदरिद्र, शिक्षक मन का धनी अवश्य होता है। अन्यथा शिक्षण जैसे सत्कर्म में वह कदापि आनन्द नहीं पाता। उसकी फटी धोती उसकी निस्संगता, उसकी वैचारिक उज्ज्वलता का भी प्रतीक हुआ करता था। अस्तु, आज के युग में तो शिक्षकों की वह दरिद्रता कमोबेश मायने नहीं रखती। मायने रखती है उनकी वह प्रुबुद्धता, समाज निर्माण की इनकी वह शक्ति, जिनके सम्मुख आज सम्पूर्ण विश्व को नतमस्तक होना होगा। आदि गुरु शंकराचार्यसे अबतकबुद्ध महावीर, चाणक्य, गुर द्रोण, रामकृष्ण परमहँस, विवेकानन्द और न जाने कितने विवादित, गैर विवादित गुरुओं की लम्बी श्रेणी।
किन्तु कर्तव्य सबके एक ही, मानव समाज में ऊर्जा भरना।
किन्तु, मानव रूप में अवतरित उन विराट् गुरुओं को तो हम अवश्य याद करें जिन्होंनें ज्ञान-विज्ञान के गहनतम प्रश्नों को समझने, सुलझाने में हमारी मदद की ।पर, अपने अस्तित्व के आरम्भ से अब
तक के उन गुरुओं की ओर दृष्टिपात करें जिन्होंने जाने  अनजाने  हममें उन मानव मूल्यों को भरा, जिसके बिना हम मानव कहलाने के अधिकारी ही नहीं होते!
यह धरती, यह आकाश, ये नदियाँ, ये सागर, ये पर्वत, ये वृक्ष, ये पौधे, ये गाते हुए पक्षी, ये खिलते फूल, गुनगुनाते भँवरे, ये लताएँ, यहाँ तक की चींटियाँ भी। यानि कि सभी कुछ। यह सम्पूर्ण प्रकृति।
हमें तो लगता है कि शिक्षक दिवस के दिन इन सबों के प्रति भी हम उतनी ही कृतज्ञता प्रगट करें..।
उनके संरक्षण का संकल्प लें और तहेदिल से अपने पर्यावरण के कृतज्ञतापूर्ण संरक्षण के प्रति सचेष्ट हो जाएँ। शिक्षक दिवस की पूर्ण सार्थकता तभी होगी...।

गुरुः ब्रहमा, गुरु विष्णुः गुरुः देवो महेश्वरः
गुरु साक्षात् परंब्रहमः तस्मै श्री गुरुवैः नमः ।।


आशा सहाय..


शिक्षक दिवस  2014 पर ...।

रविवार, 31 अगस्त 2014

भय



भय से कु विचार उपजता है
भय से संदेह पनपता है
भय ही प्रतिकार की जननी है
भय से संस्कार जकड़ते हैं

भय की अग्नि में जलकर ही
संशय औ,फिर संकल्प जनित
प्रगति के सौ-सौ द्वार खुले
कुछ चरम उद्विग्नता के क्षण में
सौ-सौ स्वरूप धर भय आता,
भय की सीढ़ियाँ चढ़-चढ़कर
उलझन के तार सुलझते हैं।
भय से संतप्त चराचर यह
पल भर न सहज हो पाता है
वायु धरती अग्नि से डर
दो श्वास सहज नहीं ले पाता
भयसंचालित यह विश्व मगर फिर भी नियमों से जीता है—
खिलते हैं फूल,नभचर पलते
तारे भी नियमों पर चलते
फिर मन के निभृत कोने में कैसे बैठा यह शाश्वत भय ..?
यह भय ही है जिसने बाँधा
जन को जन से सम्बन्धों में ,
फिर निभा प्रीति,सोहृद बना
अपनापा का सिद्धांत गढ़ा।
भय से बचने के लिये हाय,
कितनों को भय से पाट दिया।
भय ने नदियों को बाँध दिया
बरबस उनका मुँह मोड़ दिया
जंगल से शहरों को भागे,
नव सृष्टि बनायी भय ने ही
इन नभ छूते भवनों से फिर
झाँकते धरा वातायन से
इन लोगों से पूछो तो जरा..
कयों सोते नहीं धरा पर वे?
वनचर के साथ नहीं रहते..?
छोटे कुंजों गुंजों से क्यों..
उन घने विशाल वृक्षों परचढ़ निर्भयता नहीं अनुभव करते..?

  
 यह भय हीहै...
कहीं भूख प्यास का भय
कहीं रोग-शोक का भय
जीवन के सपनों के कहीं छिन जानै का भय...।


आशा सहाय—10-7-13--।

युद्ध—



    यह कैसा युद्ध—
आगत किन्तु अनचाहा सा—
ज्यों महामाँग सर्वत्र उठे ,
युद्धं  देहि युद्धं देहि?-?-?—
इतिहास के बिखरे पन्नों पर
युद्धं देहि युद्धं देहि
होगा भविष्य युद्धं देहि-।
किन्तु बोलो,कल्याण महा  ??
निज जाति धर्म का कष्ट प्रसार-??
विश्वास कठिन, दर्शन सुचिंत्य-
औचित्य प्रश्न युद्धं देहि-।
खेमे खेमे में बँटा जगत
पर लक्ष्य सभी का एक यहाँ—
सब शक्तिहीन हों,
बस अहं रहे अब पूर्ण प्रबल
शक्ति-संतुलन का खेल यही
नयनों के सम्मुख दीख रहा--...
अणु-परमाणु का विकट-राग
है डरा हुआ निरुपाय मनुज-।


है युद्ध नहीं कोई विकल्प
चिर शाँति ?
नही यह भी विकल्प
दुर्बल जीवन का नाश सही
दुर्बल जाति का नाश सही
पर क्या इनसे हो रिक्त मही--?
क्या इनका कुछ अ धिकार नही--?
पर शान्ति महा जड़ मूढ़ अचेत
कर्तव्य-हीन ,ऊर्जा विनष्ट
किं किं न करोति पाप प्रबल
भयमुक्त प्रजा हो दिग्विमूढ़—
नर शापित सा चिर शाँति क्रोड़,
नर शापित सा चिर युद्ध क्रोड़
फिर यही सही,
जागे जब-जब अधिकार-बोध
जागे जब-जब अभिमान बोध
युद्धं देहि,युद्धं देहि—
अनचाहा पर अनिवार्य यद्ध-

युद्धं देहि युद्धं देहि—।


आशासहाय---1-7-99--।