ठहरो, मैं दीप जला आऊँ,
आने की आहट होती है,
अँधकार बहुत ही गहरा है,
पथ विजन, सहारा कुछ भी नहीं,
ठहरो मैं दीप जला आऊँ।
मेरी स्मृति के साथ जुड़ी,
उनको भी स्मृति हो आई हो,
उनको भी स्मृति हो आई हो,
बंधन है हृदय का, मोह नहीं,
कँकरीला पथ,डगमग हैं पग,
है आस मगर दो नयनों को,
मैं मग के कंटक चुन
आऊँ...
ठहरो मैं दीप जला आऊँ।
यह जन्म-जन्म का बंधन है,
भूलूँ मै कैसे इसे अभी,..
नभ में मेघों का समर छिड़ा,
बिजली की कौंध डरा जाती,
मन विकल करे गर्जन तर्जन,
इस निविड़ रात्रि में कैसे तब
उनको मैं राह दिखा पाऊँ,
ठहरो मैं दीप जला आऊँ...
कैसे पाऊँ प्रतिपल जिसकी
राहों में पलकें भींग रहीं,
जिसकी करूणा जिसकी ममता,
अवलंबन में मैं बँधी रही,
उनके आने की आहट है,
ठहरो मैं दीप जला आऊँ...
ठहरो मैं दीप जला आऊँ...
उनके बिन मंदिर सूना है,
खुल गये सभी पट रात्रि- प्रात के,
अब प्रात निशा कासन्धि प्रहर,
उनके चरणों की आहट है
अगुरू-गन्ध –झकोरो से
अन्तः-प्रकोष्ठ को भर आऊँ,
ठहरो मैं दीप जला आऊँ...।
है पथ दुर्गम ,निष्ठुर है गगन,
बस स्नेह डोर के छोर पकड़,
इस विजन रात्रि में सहम-सहम,,
धीमे पग ही मैं आने दूँ....
ठहरो, मैं दीप जला आऊँ....।।
आशा सहाय़----5-10-2014---।
चित्र - गूगल से साभार--
चित्र - गूगल से साभार--